jindgi ki is aapadhapi me(जिन्दगी की इस आपाधापी में कब निकली उम्र )- best poem
पता ही नहीं चला
जिन्दगी की इस आपाधापी में
कब निकली उम्र पता ही नहीं चला
कंधे पर चढ़ते बच्चे कब
कंधे तक आ गये , पता ही नहीं चला
एक कमरे से शुरू मेरा सफर कब
बंगले तक आया पता ही नहीं चला
साइकिल के पैडल मारते थे तब
बड़ी गाडियों में लगे फिरने कब पता ही नहीं चला
हरे - भरे पेड़ो से भरे जंगल थे तब
कब हुए कंक्रीट के पता ही नहीं चला
कभी थे जिम्मेदार माँ - बाप की हम
कब बच्चो के लिए हुए जिम्मेदार पता ही नहीं चला
एक दौर था जब दिन को भी बेखबर सो जाते थे
कब रातो की उड गयी नींद पता ही नहीं चला
जिन काले घने बालो पे इतराते थे हम
रंगना शुरू कर दिया कब पता ही नहीं चला
दिवाली - होलो मिलते थे यारो -दोस्तों रिश्तेदारों से
कब छीन ली महोब्बत आज के दौर ने पता ही नहीं चला
दर-दर भटकते थे नौकरी की खातिर खुद हम
कब करने लगे सैकड़ो नौकरी हमारे यहाँ पता ही नहीं चला
बच्चो के लिए कमाने बचाने में मशगुल हुए हम
कब बच्चे हमसे हुए दूर पता ही नहीं चला
भरा पूरा परिवार से सीना चोडा रखते थे हम
कब परिवार हम दो पर सिमटा पता ही नहीं चला
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